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1960 के दशक की दो घटनाओं ने भारत की खुफिया प्रणाली को पुनर्गठित करने और
पुनर्जीवित करने की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित कर दिया : 1962 का भारत-चीन
युद्ध, और 1965 का भारत-पाकिस्तान युद्ध, इन दोनों ही युद्धों के समय भारतीय ख़ुफ़िया
एजेंसियों के सूचना जुटाने के कामकाज में भारी चूक देखी गई थी। जिस अधिकारी को इस
ख़ुफ़िया प्रणाली को दुरुस्त करने के कठिन कार्य की जिम्मेदारी सौंपी गई, वह आर. एन. काव
थे – जो फिल्मों और उपन्यासों में दिखाए जाने वाले आकर्षक और ग्लैमरस ‘जासूस से
बिल्कुल अलग थे।
रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के संस्थापक और प्रमुख काव एक ऐसे व्यक्ति थे जो पर्दे के पीछे
रहकर काम करना पसंद करते थे। विनम्र और सज्जन स्वभाव के धनी काव भले ही जासूस
जैसे नहीं लगते थे, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि उन्होंने भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी को विश्व
की जानीमानी एजेंसियों की कतार में खड़ा कर दिया । इस रोचक पुस्तक में, लेखिका अनुषा
नंदकुमार और संदीप साकेत आधुनिक भारतीय ख़ुफ़िया प्रणाली की जड़ों का पीछा करते हैं,
और बताते हैं कि कैसे ‘रॉ’ ने 1971 की लड़ाई में बांग्लादेश को आजाद कराने में अहम
भूमिका निभाई थी।
काव का एक ही लक्ष्य था, ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने वाली एक वैश्विक स्तर की एजेंसी का
निर्माण करना जो भारत की सुरक्षा और अखंडता को सुनिश्चित कर सके। और अंततः,
‘कावबॉयज़’ – जो उनके द्वारा बनाई गई टीम को दिया गया उपनाम था – की ख्याति दूर-दूर
तक फैल गई। इस पुस्तक में उसी कहानी की दिलचस्प दास्तान है कि इस एजेंसी के सफर की
शुरुआत कैसे हुई : गुप्त अभियानों, साहस और सूझबूझ भरे कारनामों का वृत्तांत; और इसके
साथ ही इसमें यह भी बताया गया है कि युद्ध केवल युद्धक्षेत्र में ही नहीं, बल्कि उसके बाहर
भी लड़े जाते हैं।
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